पुस्तक की आत्मकथा इन हिंदी / Pustak ki Atmakatha in Hindi

पुस्तक की आत्मकथा इन हिंदी / Pustak ki Atmakatha in Hindi

पुस्तक की आत्मकथा इन हिंदी

मैं एक पुस्तक हूँ, मेरे अन्दर कई सारे लिखित पेज हैं। मुझे अपना रूप व नाम लेने में कई महीने लगे हैं। मैं कागज की बनी हूँ, कागज बाँस व लकड़ी की लुगदी से बनता है। पेड़ काटे जाते हैं व लकड़ी की लुगदी को इसके लिए तैयार किया जाता है। यह एक बड़ा व जटिल' कार्य है। फिर कागज को छपाई कारखाने में ले जाते हैं जहाँ कागज छपते हैं व इच्छानुसार आकार में काटे जाते हैं। फिर मुझे सुन्दर कागज में लपेटा जाता है।

मेरा नामावली पृष्ठ बहुत आकर्षक है जिस पर मेरा व प्रकाशक का नाम लिखा है। मैं बहुत खूबसूरत, आकर्षक व ध्यान केन्द्रित करने वाली हूँ। लोग आते हैं व मुझे देखते हैं, मुझे छूते हैं व मेरे पृष्ठ पलटते हैं और मुझे खरीदते हैं। वे मुझे लेकर गर्वित होते हैं। वे मुझे अपनी मेज व अलमारियों में सँभालकर रखते हैं।

पुस्तक की आत्मकथा इन हिंदी / Pustak ki Atmakatha in Hindi

मेरे अन्दर रंगीन चित्र, कलाकृति और पहाड़े हैं। छपी हुई सामग्री के साथ-साथ विषय-सूची भी है जो कि रुचि के अनुसार पाठ खोजने में सहायता पहुँचाती है। अन्त में भी एक विषय-सूची है जो पाठकों को विषय खोजने में सहायता पहुँचाती है।

मेरा लेखक बहुत विद्वान् है। वह बुद्धिमान, प्रसिद्ध व अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं। वह मेरे पिता व मैं उनकी बेटी हूँ।

मेरा मुख्य उद्देश्य अपने पाठक को निर्देशित, शिक्षित करना व मनोरंजन प्रदान करना भी है। मैं बहुत अच्छा व वफादार मित्र हूँ। मेरा पाठक मुझे बार-बार पढ़ता है। मैं उपयोगी व आकर्षक हूँ। मैं चाहती हूँ कि मेरी हमेशा अच्छी देखभाल हो। अगर कोई मेरे साथ बुरा व्यवहार करता है, मेरे पृष्ठों को फाड़ता है तो मुझे बहुत दु:ख होता है।


Pustak ki Atmakatha in Hindi

मैं पुस्तक हूं जिसे पढ़कर कोई भी मनुष्य विद्वान बनता है। मैं इंसान को अंधकार से उजाले की ओर ले जाने का काम करती हूं। मेरे कारण ही कोई भी मनुष्य सभ्य बन पाता है और अपने राष्ट्र के लिए कुछ कर पाता है। मुझमें लिखा हुआ ज्ञान ही मनुष्य को आज इतना आधुनिक बना पाया है।

छोटे बच्चे अपनी जिंदगी में ज्ञान प्राप्त करने की शुरुआत मुझसे ही करते हैं और समय के साथ साथ वे ज्ञानी होते जाते हैं। बाद में यही बच्चे बड़े होकर अपने राष्ट्र की प्रगति में भागीदार बनते हैं।

मुझे सिर्फ छोटे बच्चे ही नहीं बल्कि सभी उम्र के लोग पढ़ते हैं क्योंकि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है। काफी लोग मुझे सिर्फ शौक के कारण पढ़ते हैं ताकि मैं अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकें।

इतना ही नहीं, कुछ लोग मुझे सिर्फ कहानी और कविता पढ़ने के लिए ही खरीदते हैं ताकि मैं उनका मनोरंजन कर सकूं। इन कहानी और कविताओं से भी उन्हें कुछ ना कुछ शिक्षा मिलती है और उनका नैतिक ज्ञान बढ़ाने में भी मदद करती हैं।

प्राचीन काल की बात करें तो मेरा उपयोग ज्ञान को संरक्षित रखने के लिए किया जाता था। ज्ञान की सारी चीजें मुझ में लिख दी जाती थी और उसे अच्छे से संभाल कर रखा जाता था। ज्ञान को संरक्षित करने का एक फायदा यह भी था कि उसे कोई व्यक्ति कुछ समय के बाद यदि भूल भी गया हो तो वह ज्ञान को दोबारा प्राप्त कर सकें। इसके कारण ही ज्ञान कभी भी नष्ट नहीं होता था और हमेशा मनुष्य के पास रहता था।

आज भी आप कई पुस्तक प्राचीन काल की देखते होंगे जिसमें ज्ञान की बहुत सारी बातें ऋषि-मुनियों द्वारा लिखी गई थी। यदि उस वक्त इन ज्ञान की बातों को संरक्षित ना किया जाता तो शायद आज हमें उनके द्वारा दिया गया ज्ञान ना प्राप्त होता। 

वर्तमान युग में भी मेरा उपयोग ज्ञान को अर्जित करने के लिए ही होता है मगर आज आधुनिक तरीकों से ज्ञान को संभाल कर रखा जा सकता है। इन आधुनिक तरीकों से कई लोग आज ज्ञान प्राप्त करते हैं मगर अधिकतर लोग आज भी मुझमें से ज्ञान अर्जित करना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें किसी आधुनिक यंत्र जैसे मोबाइल या कंप्यूटर की मदद से पढ़ने की बजाय सीधा मुझसे पढ़ना ज्यादा पसंद है।


पुस्तक की आत्मकथा पर निबंध

मैं पुस्तक हूँ । जिस रूप में आपको आज दिखाई देती हूं प्राचीन काल में मेरा यह स्वरूप नही था । गुरु शिष्य को मौखिक ज्ञान देते थे । उस समय तक कागज का आविष्कार ही नहीं हुआ था । शिष्य सुनकर ज्ञान ग्रहण करते थे ।

धीरे-धीरे इस कार्य में कठिनाई उत्पन्न होने लगी । ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया । तब ऋषियों ने भोजपत्र पर लिखना आरम्भ किया । यह कागज का प्रथम स्वरूप था ।

भोजपत्र आज भी देखने को मिलते हैं । हमारी अति प्राचीन साहित्य भोजपत्रों और ताड़तत्रों पर ही लिखा मिलता है ।

मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट पीस कर गलाया जाता है उसकी लुगदी तैयार करके मुझे मशीनों ने नीचे दबाया जाता है, तब मैं कागज के रूप में आपके सामने आती हूँ ।

मेरा स्वरूप तैयार हो जाने पर मुझे लेखक के पास लिखने के लिए भेजा जाता है । वहाँ मैं प्रकाशक के पास और फिर प्रेस में जाती हूँ । प्रेस में मुश् छापेखाने की मशीनों में भेजा जाता है । छापेखाने से निकलकर में जिल्द बनाने वाले के हाथों में जाती हूँ ।

वहाँ मुझे काटकर, सुइयों से छेद करके मुझे सिला जाता है । तब मेर पूर्ण स्वरूप बनता है । उसके बाद प्रकाशक मुझे उठाकर अपनी दुकान पर ल जाता है और छोटे बड़े पुस्तक विक्रेताओं के हाथों में बेंच दिया जाता है ।

मैं केवल एक ही विषय के नहीं लिखी जाती हूँ अपितु मेरा क्षेत्र विस्तृत है । वर्तमान युग में तो मेरी बहुत ही मांग है । मुझे नाटक, कहानी, भूगोल, इतिहास, गणित, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, साइंस आदि के रूप में देखा जा सकता है ।

बड़े-बड़े पुस्तकालयों में मुझे सम्भाल कर रखा जाता है । यदि मुझे कोई फाड़ने की चेष्टा करे तो उसे दण्ड भी दिया जाता है । और पुस्तकालय से निकाल दिया जाता है । दुबारा वहां बैठकर पढ़ने की इजाजत नहीं दी जाती ।

मुझमें विद्या की देवी मरस्वती वास करती है। अध्ययन में रुचि रखने वालों की मैं मित्र बन जाती हूँ । वह मुझे बार-बार पढ़कर अपना मनोरंजन करते हैं । मैं भी उनमें विवेक जागृत करती हूँ । उनकी बुद्धि से अज्ञान रूपी अन्धकार को निकाल बाहर करती हूँ ।

नर्सरी से लेकर कॉलेज में पढ़ने वाले के लिए मैं उनकी सफलता की कुंजी हूँ । वे मुझे पढ़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं और अपने लक्ष्य पर पहुँचकर जीविका कमाने में लग जाते हैं । जो मेरा सही इस्तेमाल नहीं करते वह प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं ।

आगे बढ़ने का अवसर खो देते हैं और मित्रों, रिश्तेदारों में लज्जित होते हैं । मैं केवल स्कूल और कॉलेजों की पाठ्य पुस्तक ही नहीं हूँ, अपितु हिन्दुओं की गीता, मुसलमानों की कुरान, सिक्सों का गुरू ग्रन्थ साहिब, ईसाइयों की बाइबिल हूँ । ये लोग मुझे धार्मिक ग्रन्थ मानकर मेरी पूजा करते हैं, मुझे फाड़ना या फेंकना पाप समझा जाता है ।

मैं नहीं चाहती कि लोग मुझे फाड़कर फेंक दे या रद्दी की टोकरी में डाल दें । जहाँ मैं अपने भविष्य के बारे में पड़ी-पड़ी यह सोंचू कि कल मेरा क्या होगा ? क्या मूंगफली वाला, चाटवाला, सब्जीवाला या चने वाला उठाकर ले जाएगा? कोई लिफाफे बनाने वाले को देकर लिफाफे बनवाएगा ? या कोई गरीब विद्या प्रेमी आधी कीमत देकर मुझे खरीद लगा ।

मैं चाहती हूँ कि लोग मुझे फाड़े नहीं, मुझे घर के एक कोने में सही ढंग से रखें और इस्तेमाल करें । जो मेरा आदर करता है मैं उसका आदर करती हूँ । भविष्य में महान् व्यक्तियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती हूँ । जहां वह अपनी विद्वता का परिचय देकर दूसरों से आदर पाता है । कितने व्यक्ति परिश्रम करके मुझे आप तक पहुँचाते हैं । आप मेरा सदुपयोग करें मैं केवल यही आशा करती हूँ ।


Autobiography of a Book in Hindi

मैं पुस्तक हूं। मुझे तो आप पहचानते ही होंगे, बिल्कुल, क्यों नहीं !! मैं अपना परिचय कुछ इस प्रकार देना चाहूंगी – मैं ज्ञान का भंडार हूं, मुझमें ज्ञान का सागर उपस्थित है। मैं शिक्षा एवं मनोरंजन का उत्तम साधन मानी जाती हूं। मेरे बिना शिक्षा ग्रहण करना संभव नहीं है, शिक्षा के क्षेत्र को मेरे बिना कल्पना कर पाना भी संभव नहीं है। मैं शिक्षक एवं शिष्य के बीच की डोरी हूं।

मनुष्य ने मेरी कुछ इस प्रकार व्याख्या की है,  “पुस्तकें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र मानी जाती है”। मुझ में मां सरस्वती का वास है। मुझे पढ़ कर ना जाने कितने ही अज्ञानी विद्वान बनते है। जो व्यक्ति मेरे साथ मित्रता का स्वभाव रखते हैं, मुझे अपना सबसे ज्यादा वक्त देते हैं, मेरे साथ अधिकतम समय बिताते हैं, मुझे पढ़ते हैं, उन्हें में अंधकार से प्रकाश की ओर ले आती हूं।

मैं वह मुकाम रखती हूं कि किसी भी व्यक्ति को ज्ञान का धनी बना दूँ। जो मेरा सम्मान करते हैं, अपना समय पुस्तकें पढ़ने में व्यतीत करते हैं, वह लोग ज्ञान से भर जाते हैं; ज्ञानी हो जाते हैं, और फिर सारी दुनिया उनका सम्मान करती है। मैं किसी भी व्यक्ति को बुलंदियों पर पहुंचाने का दमखम रखती हूं। जो मुझे हृदय से लगा ले, उसे दुनिया सलाम करती है।

इस दुनिया में जितने भी विद्वान हैं, वह सभी मेरे द्वारा शिक्षा ग्रहण करके ही ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं अथवा उन्होंने अपने जीवन में सफलता का परचम लहराया है। चाहे वह अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ डॉक्टर हो या जनता के हित में कार्य करता आई.ए.एस अफसर या ज्ञान देता शिक्षक या इमारतें बनाता इंजीनियर या फिर भविष्य के लिए शोध करता वैज्ञानिक हो, सभी मेरे कारण ही शिखर पर पहुंचे हैं।

मैंने लोगों के भविष्य संवारे हैं, उन्हें काबिल बनाया है, समाज में रहने लायक बनाया है एवं अपनी आजीविका का प्रबंध करने हेतु सक्षम भी। जो मेरी इज्ज़त करते हैं, वह जीवन में आगे बढ़ते हैं, तरक्की करते हैं, नाम कमाते हैं और जो मेरा सम्मान नहीं करते है, मुझसे दूरी बनाए रखते हैं, मुझ में रुचि नहीं लेते, वह जिंदगी की दौड़ में पीछे रह जाते हैं; कभी अपने जीवन में कुछ बन नहीं पाते, अज्ञानी रह जाते हैं और आज के युग में अज्ञानी होना सबसे बड़ा अभिशाप है। मैं वह जादू का पिटारा हूं, जो कोई मुझे अपने जीवन में उतार ले तो संभवतः ही जीवन प्रकाश से प्रज्वलित हो जाता है।

मैं अलग-अलग विषयों में उपलब्ध होती हूं, अनेकों रंग एवं रूप के साथ, कभी हल्की तो कभी भारी। मेरे पृष्ठ कभी पीले, नीले या सफेद अर्थात किसी भी रंग के हो सकते हैं। मेरा विषयों के अनुसार वर्गीकरण है, जैसे के साहित्य की पुस्तकें, उपन्यास, छोटे बच्चों की पुस्तकें, मेडिकल की पुस्तकें आदि।

पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पश्चात जब जीवन की शुरुआत हुई एवं धीरे-धीरे मानव जाति का विकास हुआ तो मनुष्य ने भिन्न-भिन्न विषयों के बारे में जानकारी इकट्ठा करनी शुरू की और वही जानकारी संयुक्त होकर ज्ञान कहलाई, अथवा ज्ञान को ग्रहण करना शिक्षा कहलाया। पुरातन काल में मेरे अभाव के कारण शिक्षा ग्रहण करने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

ज्ञान को अर्जित करने के लिए किसी अच्छे, टिकाऊ माध्यम की आवश्यकता थी, जिसके द्वारा ज्ञान फैल सके एवं शिक्षा ग्रहण हो सके; सभी शिक्षित किए जा सके। शुरुआत में अलग-अलग वस्तुओं का प्रयोग हुआ, जैसे पत्ते, कपड़े आदि जिन पर स्याही द्वारा लिखाई करके शिक्षा दी जाती थी। परंतु समय बदला और आखिरकार कागज का आविष्कार हुआ अथवा मुझे यह स्वरूप मिला, जो आज आपके सामने है।

कागज को वृक्षों द्वारा निर्मित किया जाता है, जो कि एक लंबी एवं कठिन प्रक्रिया है। कागजों पर संबंधित विषय के बारे में लिखाई अथवा प्रिंटिंग की जाती है, जिसके उपरांत काग़ज़ों को पृष्ठ का रूप मिलता हैं।

इस के बाद, पृष्ठों को ध्यानपूर्वक क्रमबद्ध तरीके से एक साथ सिल लिया जाता है। आज भी पुस्तक बनाने की लगभग यही विधि है, बस हल्के फेरबदल के साथ; आज के युग में पृष्ठों को गोंद द्वारा आपस में क्रम से जोड़ा जाता है।

मनुष्य से मेरा बहुत गहरा एवं बहुत पुराना संबंध है, इसके पश्चात भी कुछ लोग मुझे बहुत चाव एवं अच्छे ढंग से रखते हैं और कुछ लोग मुझ में बिल्कुल भी रुचि नहीं लेते हैं; यह तो भिन्न-भिन्न मनुष्य का स्वभाव है, मुझे इससे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि जो मुझे मन से लगाएगा, वही समृद्धि पाएगा।

पर मुझे तब बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है, जब मैं रद्दी में कौड़ी के भाव बेच दी जाती हूं, इससे बेहतर तो यह होगा कि मैं किसी गरीब बच्चे को भेंट कर दी जाऊं या किसी छात्र को आधी कीमत में दे दी जाऊं, क्योंकि यही छोटे कदम हमारे देश के सामाजिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होंगे।

मैं सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि धार्मिक ग्रंथों के रूप में भी पाई जाती हूं। मेरे अनेकों स्वरूप है, मैं गीता भी हूं, मैं कुरान भी हूं, मैं बाइबल भी हूं। सभी धार्मिक ग्रंथ एक ही पाठ सिखाते हैं, कि मानवता ही प्रथम धर्म है, मनुष्य होने के नाते हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए : भूखों को खाना खिलाना, गरीबों की मदद करना, कमजोर की रक्षा करना, किसी को कष्ट ना पहुंचाना, सभी का आदर करना, सभी के साथ प्रेम भाव से रहना।

मैं इस प्रकार नैतिक मूल्य भी प्रदान करती हूं, मैं मानव जाति को सत्य का रास्ता दिखाती हूं जिससे जीवन सरल एवं सुखी रहे परंतु मनुष्य यह बात नहीं समझता है अथवा धर्म और जाति के नाम पर हमें आए दिन दंगे देखने को मिलते रहते हैं।

मनुष्य धर्मों के फर्क को लेकर हमेशा लड़ता झगड़ता रहता है एवं हर जाति के लोग अपने धर्म को ही सर्वोच्च मानते हैं, पर वहीं दूसरी ओर अगर मनुष्य धर्म की समानताओं की ओर ध्यान दें, तो कुछ भी इतना जटिल ना हो एवं सभी एक दूसरे के साथ नम्रता से रहे।

परन्तु, आजकल मेरा मन बहुत उदास रहता है। क्या कारण है मेरी उदासी का ?! आज के तेजी से भागते हुए अत्याधुनिक दौर में मेरी महत्वता कम होती जा रही है, बहुत कम लोग ऐसे हैं जो मेरा सही मूल्य जानते हैं एवं मुझसे प्रेम करते हैं। मेरी जगह अब इंटरनेट पर पड़ी जानकारी को ज्यादा महत्व दिया जाता है।

इस मशीनी युग में सभी इंटरनेट द्वारा ही जानकारी एवं ज्ञान लेना पसंद करते हैं, हालांकि इंटरनेट पर मौजूद सभी तथ्य एवं सारा ज्ञान सही नहीं होता है, काफी जानकारी गलत भी हो सकती है; अथार्त बुद्धिमता का प्रयोग करके, ध्यानपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए।

हाल यह है कि आज एक मां भी अपने बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा, हाथ में मोबाइल फोन थमा कर ही देना पसंद करती है; बच्चा मोबाइल फोन द्वारा ही : ऐ से अनार एवं कविताएं सीखता है, इसके विपरीत एक युग वह भी था जब छोटे नन्हे हाथों में पुस्तकें पहले थमाई जाती थी। आज का युवा भी पुस्तकों के साथ समय व्यतीत ना करके इंटरनेट में ही अधिक वक्त गवाते हैं।

यौवनावस्था के दौरान तो, जितना ज्यादा ज्ञान अर्जित किया जाए उतना कम है, पर आज की युवा पीढ़ी पुस्तकों में रुचि न रखकर इंटरनेट की आदी हैं। इंटरनेट बुरा माध्यम नहीं है, अथार्त ज्ञान अर्जित करने का गलत साधन नहीं है, पर अगर इसका उपयोग सीमित ही रखा जाए तो यही सबसे बेहतर होगा।


पुस्तक की आत्मकथा Essay in Hindi

मैं पुस्तक हूं मैं ज्ञान का भंडार हूँ। जो मेरी शरण में आता है, उसे मैं ज्ञानी बना देती हूँ। मेरे दिखाए हुआ मार्ग पर चलकर ही इंसान विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जा रहा है। छोटा-बड़ा हर कोई मुझसे प्रेम करता है और मेरे सम्मान में अपना सिर झुकाता है। मैं इंसानों की साथी हूँ; उनकी हमसफर हूँ; उनकी मार्गदर्शक हूँ; मैं पुस्तक हूँ। मैं हर घर में रहती हूँ, लेकिन संगठित रूप में मेरा निवासस्थान पुस्तकालय ही है।

आदिकाल से ही मैं ज्ञान के स्रोत के रूप में जानी जाती हूँ। लोग मेरा अध्ययन कर स्वयं का ज्ञानवर्धन करते हैं। हर व्यक्ति के जीवन में मेरा एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। खासकर विद्यार्थियों व लेखकों के जीवन में मेरा प्रमुख स्थान है। वे किसी भी क्षण मुझे स्वयं से अलग नहीं करना चाहते हैं। एक गुरु की भाँति मैं हर पग पर उनका मार्गदर्शन करती रहती हूँ। ऐसा करके मुझे बहुत संतोष प्राप्त होता है, क्योंकि यही मेरे जीवन का उद्देश्य भी है।

आज मेरा जो रूप आपको दिखाई देता है, शुरुआती दिनों में ऐसा नहीं था। पहले कागज का आविष्कार नहीं हुआ था। अतः भोजपत्रों, बाँस की पतली पट्टियों आदि का प्रयोग किया जाता था। धीरे-धीरे विज्ञान की प्रगति ने मेरा रूप बदल दिया। आज पेड़ों से कागज का निर्माण किया जाता है और इसी से मुझे यह नया सुंदर रूप प्राप्त हुआ है। कविता, कहानी, नाटक, विज्ञान, इतिहास, भूगोल इत्यादि का सारा ज्ञान मुझमें ही समाहित है।

मेरा निर्माण बहुत परिश्रम से होता है। पहले पेड़ों की गुदा से कागज का निर्माण किया जाता है। इसके बाद कोई ज्ञानी व्यक्ति मेरे पन्नों पर ज्ञान की बातें अंकित करता है। बड़ी-बड़ी मशीनों के सहारे मेरी छापाई की जाती है। इससे मेरी जैसी अनेक प्रतियाँ बनकर तैयार हो जाती हैं। इसके बाद मैं दुकानों व पुस्तकालयों में पहुँचती हूँ, जहाँ से लोग अपनी-अपनी रुचि और जरूरत के अनुसार मेरा प्रयोग करते हैं।

मैंने देखा है कि कुछ बच्चे व पाठक मुझे बहुत सँभालकर रखते हैं, तो कुछ मेरे पन्नों को फाड़कर व गंदा करके मेरा रूप खराब कर देते हैं। ऐसे लापरवाह पाठकों पर मुझे बहुत गुस्सा आता है। मेरी उनसे यही गुजारिश है कि वे अपनी तरह मुझे भी साफ-सुथरी व सुरक्षित रखें, जिससे मैं और अधिक लोगों के काम आ सकूँ ।

जबसे मेरा जन्म हुआ है, मानवजाति ने मुझे सिर आँखों पर बिठाया है। लोग मुझे सरस्वती माँ का रूप समझते हैं। मेरी पूजा-अर्चना करते हैं। मुझे यह सम्मान प्राप्त कर स्वयं पर बहुत गर्व होता है। आधुनिक युग में मेरा एक नया रूप जन्म ले रहा है। लोग अब मुझे अपनी अलमारियों में बंद करने लगे हैं और मेरे बदले कंप्यूटर, मोबाइल आदि पर उपलब्ध मेरे एक नए रूप का मोह लोगों में तेजी से बढ़ने लगा है। यह परिवर्तन मेरे लिए बहुत सुखद नहीं है, क्योंकि मुझे अपना वर्तमान रूप बहुत पसंद है। फिर भी मैं परिवर्तन का सम्मान करती हूँ। मेरा जन्म मानवसभ्यता को ज्ञान-विज्ञान की बुलंदियों तक पहुँचाने के लिए हुआ है और मैं ऐसा करके स्वयं को धन्य समझती हूँ। बस यही है मेरी छोटी-सी आत्मकथा।


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