सुखदा का चरित्र चित्रण - Sukhda ka Charitra Chitran

सुखदा का चरित्र चित्रण - Sukhda ka Charitra Chitran

सुखदा का चरित्र चित्रण: सुखदा धनवान माता पिता की इकलौती पुत्री है। उसकी मां रेणुका देवी और पति अमरकांत है। अमरकांत के ऐश्वर्य और भोग की प्रवृत्ति का अमरकांत की त्याग प्रवृत्ति से समझौता नहीं हो पाता और वह उससे खिंचती चली जाती है। परन्तु अमरकांत के घर से चले जाने पर उसके यथार्थ चरित्र का विकास आदर्श की ओर क्रमशः होता है। वह अछूतों के मन्दिर में प्रवेश आन्दोलन में सफलता प्राप्त कर लोकप्रिय बन जाती है। इसके बाद गरीबों के लिए भूमि अर्जन हेतु आन्दोलन और हड़ताल का आयोजन करने के कारण जेल भी जाती है। जेल में वह साधारण कैदियों के साथ ही रहना पसन्द करती है, इस प्रकार यथार्थ से क्रमशः आगे बढ़ता हुआ आदर्श के चर्मोत्कर्ष पर पहुंचकर उसका चरित्र सर्वाधिक आकर्षक बन जाता है।

सुखदा कथानक के नायक अमरकांत की पत्नी है। प्रारंभ में प्रवृत्ति की भिन्नता के कारण उसके और पति के बीच में विरोध की खाई अवश्य कुद जाती है, परंतु धीरे -धीरे अमरकांत आदर्श की और बढ़ता है और अमरकांत की कर्मभूमि में कूदकर सुखदा उससे भी आगे निकल जाती है। वह हड़ताल और आंदोलन में जेल जाती है। अन्त में उद्देश्य की सफलता के साथ अमरकांत से उसका मिलन होता है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक प्रत्येक पात्र और प्रत्येक घटना उनसे प्रभावित रहती है। अतः वह कथानक की नायिका है।

'कर्मभूमि' में प्रेमचंद ने अन्य उपन्यासों की तरह सात्विक, तेजस्विता और कर्तव्यपरायणता जैसे आदर्शवादिता के आधार पर सुखदा के चरित्र की उदभावना की है। उसका चरित्र सामान्य धरातल से उठकर आदर्शवादिता के उच्च धरातल की और बढ़ता जाता है। सुखदा भारतीय नारी के आदर्श की प्रतिष्ठा करती है। वह भोग विलास का परित्याग कर कठोर एवं तपस्यापूर्ण जीवन अपनाती है और अपने त्याग एवं कर्तव्य परायणता से अपने पति अमरकांत के हृदय को जीत लेती है।

बड़े घर की बेटी होने के कारण सुखदा में भोग और ऐश्वर्य की प्रवृत्ति के कारण अमरकान्त से खिंचती अवश्य है, परंतु उसमें अमरकान्त की परिश्रमशीलता और सेवावृत्ति के अंकुर हैं। यही कारण है वह केस में फँसी मुन्नी का बचाव करती है। अमरकांत के घर छोड़ देने पर वह भी साथ ही जाती है। अपने स्वाभिमान के कारण सुखदा न तो मायके जाती है और न उसकी कोई सहायता लेती है। यह जीविका के लिए एक कन्या पाठशाला में पचास रुपया माह कि नौकरी कर लेती है।

सुखदा स्वार्थिनी नहीं है, स्वाभिमान और परिश्रमशीलता के साथ अपनों के साथ आत्मीयता और प्रेम का व्यवहार उसके चारित्र की प्रमुख विशेषता है। ससुर समरकान्त की बीमारी की खबर सुनकर वह बैचेन हो जाती है। वह अपने व्यस्त कार्यक्रम में भी प्रतिदिन समय निकालकर उनको खाना बनाकर खिला आती, अपनी ननद नैना से वह असीम प्यार करती है। अमरकान्त के घर छोड़ने पर नौकरानी सिल्लो और नैना उसके साथ आती हैं। आगे चलकर नैना उसकी तैयार की हुई कर्मभूमि में कूद कर अपना बलिदान देती है।

सुखदा में नारी गर्व की सहज भावना है। वह अमरकान्त के घर न चले जाने पर उसकी परवाह नहीं करती, क्योंकि उन्होंने उसकी अपेक्षा की थी। सकीना के प्रति अमरकान्त का प्रेम भी उसे कठोर बना देता है। ऐसी ही शंका वह अमरकान्त और मुन्नी के संबंध में करती है। परंतु सकीना और मुन्नी से यर्थाथ स्थिति मालूम हो जाने पर ग्लानि होती है और वह अमरकान्त की कर्मभूमि को अपनाने का संकल्प कर लेती है।

अमरकान्त की त्यागमयी कर्मभूमि को अपना कर सुखदा के चरित्र में नाटकीय परिवर्तन आता है। वह अछूतों को अपने आंदोलन से मन्दिर में प्रवेश दिलाती है। यहीं से वह नेता बन जाती है। उसका दूसरा कदम गरीबों के मकानों की जमीन के लिए मुनिसिपालिटी से होता है। आन्दोलन और हड़ताल कराने के जुर्म में उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। लाला समरकान्त के लाख प्रयत्न करने पर भी वह जमानत पर छूटने को तैयार नहीं होती और जेल चली जाती है। जेल में भी साधारण कैदियों के साथ ही रहना पसंद करती है और विशेष सुविधाओं को ठुकरा देती है। उसका आंदोलन सफल होता है। हर्षोल्लास के वातावरण में उसका अमरकान्त से मिलन होता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सुखदा एक संघर्षमयी भारतीय नारी का आदर्श चित्र उपस्थित करती है। वह यथार्थ की भूमि से उठकर क्रमशः आगे बढ़ती हुई आदर्श के शिखर पर पहुंच जाती है। यही भारतीय नारी का उच्चतम आदर्श है। जिसके लिए प्रसाद जी ने लिखा है -

"नारी तुम केवल श्रद्धा हो ।

विश्व रजत नग पग तल में ।

पीयूष - स्रोत सी बहा करो । 

जीवन के सुंदर समतल में ।"


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